लोकतंत्र में प्रजातंत्र ही सरकार होती है, जागरूकता के इस समय मे इस बात से प्रत्येक मतदाता भलीभांति परीचित है । राज्यसभा और विधान परिषद को छोड़कर हमारे देश में शेष सभी चुनाव जनता के मताधिकार से होते हैं । आजादी के बाद देश में 1952 में पहला आम चुनाव हुआ , तब भारत की 36 करोड़ की आबादी में आधे से अधिक मतदाताओं को अपने मताधिकार का सही उपयोग और सही ताकत का अनुमान नही था….
स्टेड डेस्क- समय निकलता गया और देश में धर्म, समाज और क्षेत्र के हिसाब से कई राजनैतिक पार्टियों का गठन हो गया । धीरे धीरे चुनावी मैदान में राजनैतिक दल मतदाताओं का विश्वास जीतने कई प्रकार के राजनीतिक जतन – यतन करने लगे । हमने ब्लैक एंड व्हाइट की दुनिया से रंग बिरंगी दुनिया में कदम रखा तो जागरूकता भी उसी तीव्रता के साथ बढ़ती जा रही थी । समय के साथ सरकार और मतदाताओं की समझ लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक भी है ।
वर्तमान समय में राजनीति की परिभाषा ,मतदाता की व्याख्या, घोषणा पत्र की विवेचना और तथाकथित चुनावी परिणाम का आंकलन करने वालों का ज्ञान अब शायद काम का नही रहा । बदलता परिदृश्य तीव्रता के साथ राजनैतिक समीकरण भी बदल रहा है । आज जो जागरूक एवं सक्रीय हैं उसे ही आमजन राजनीति में जीवित समझता है । वर्षों पहले होता था कि गांव – नगर की चौपाल में कोई बुजुर्ग बुद्धजीवी पूरी समाज ,पूरे गांव को मानसिक रूप से किसी एक विचारधारा की ओर आकर्षित करते थे और पूरा कुनबा बिना सवाल जवाब के उस ओर चल देता था । पर आज जागरूकता ही प्राथमिकता है और यही सशक्त भारत का निर्माण करेगी । हाल ही में गुजरात में नगरीय निकाय चुनाव सम्पन्न हुए । देश में जागरूक नागरिकों में गुजरात के निवासी अव्वल कहलाते हैं और वर्षों से गुजरातियों का विश्वास एक ही पार्टी पर है । देश के तथाकथित देशविरोधी आंदोलनों में लिप्त लोगो ने आंदोलनों के माध्यम से देश में लोकतंत्र के प्रति अविश्वसनीयता का बीज डालने की भरसक कोशिश की पर भरोसा न हिला सके । जिनकी खुद की नींव धोखे पर खड़ी है वह फिर धोखे का आईना जनता के बीच पहुंचे और उल्टे पैर वापिस आ गए ।
लोकतंत्र में हर एक को अपने विवेक से एक व्यक्ति को चुनना होता है, जो उनका प्रतिनिधित्व करता है जिसे हम जनप्रतिनिधि कहते हैं हमारे देश में पंचवर्षीय योजना है,जिससे प्रत्येक 5 वर्ष में हमें सरकार बनानी होती है ।आजादी के बाद से लगातार यह दौर चला आ रहा है और हर बार का चुनाव पिछले चुनाव से अलग हुआ है और हर बार नए पदाधिकारियों से सरकार का चयन हुआ है,हर बार कुछ ना कुछ मुद्दे रहे तो कुछ ना कुछ वादे रहे पर हर बार लगातार आमजन की सोच में और चयन में निखार आया है । लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया तो वही होगी । पर मतदाता के जागरूकता का प्रतिशत बहुत बढ़ चुका है । पहले पूर्वानुमान होता था पर आज सब कुछ प्रमाणिकता के आधार पर तय होता है । पहले पत्र हुआ करते थे फिर TV रेडियो आया, फिर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पैर जमाए, पर अब एक ऐसी मीडिया ने जन्म लिया जिसकी क्रांति ने सबको फीका तो किया ही साथ ही अपना व्यापक रूप दिखाया । पहले भ्रांति बनाकर कुछ बताया जाता था, जिसके अनुसार अवधारणा का मापदंड बनाकर व्यक्ति अच्छे बुरे का गुणा भाग करता था । पर आज भ्रांति आती है, प्रचलित भी होती है, तो कुछ ही समय में स्पष्टीकरण के साथ सत्यता हमारे समक्ष होती है ।आज किसी की जानकारी का 80% से अधिक हिस्सा उसकी सोशल साइट्स पर सक्रियता से पता चल जाता है। हमें अगर किसी व्यक्ति विशेष के बारे में बताया जाता है, तो सबसे पहले हम उसकी गतिविधियों को सोशल मीडिया पर देखते हैं। किसी की जागरूकता का जीवंत उदाहरण है, सोशल मीडिया आज सामने वह सब कुछ है जो पहले ढूंढना पड़ता था। गैर राजनीतिक व्यक्ति भी आज के समय में राजनीतिक गतिविधियों से अवगत होता है , वह भी TV देखने पर अखबार पढ़ने से पहले । पहले बारहवीं कक्षा के बाद बहुत कम क्षेत्र होते थे आगे की पढ़ाई के लिए, लेकिन आज हमने शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति की है तो वहीं गुणवत्ता भी आई है । भारत की धरती में हमेशा ज्ञान उपजा है जिससे आज कई गुना ज्यादा निखार आया है । आज गांव में रहने वाला एक पूरा परिवार शहर में आकर बस जाता है सिर्फ इसीलिए कि उसके बच्चे की शिक्षा और रहन-सहन अच्छा एवं आधुनिक हो । यह प्रमाण है कि बुद्धि से जन्मे विवेक ने कई गुना ज्यादा तरक्की की है, प्रमाणिकता है कि एक अनपढ़ पिछड़े वर्ग के व्यक्ति की जागरूकता कितनी अधिक है, यह सबूत है कि परिवर्तन के दीवाने उनके जनक हम ही हैं जो उसकी जो उसकी दिशा भी तय करेंगे । आज मध्यप्रदेश और देश में सबसे ज्यादा युवा मतदाता हैं, यह वही मतदाता है जिसे जागरूक करने और सचेत करने की जरूरत नहीं है, वर्तमान पीढ़ी अपने निर्णय स्वयं लेती है एवं पूर्ण विश्वास के साथ निर्णय लेती है ।
आज अगर मैं यह कहूं कि चुनावी रणनीति के महारथियों ने अपने आंकलन की शक्ति और पैने नजरिए को वक्त के साथ नहीं बदला तो हार जीत के मायने और अनुभव का इतिहास दरकिनार रह जाएगा। चुनावी श्रंखला में वक़्त की गति ने सदी की करवट ली है, और जिस बंद मुट्ठी को दिखाकर चुनावी मैदान में राजनीतिक पार्टियां कार्य करती थी, आज वही मुट्ठी खुली हुई है । क्योंकि जागरूकता की 21वीं सदी में पत्रकार कोई भी हो पर पत्रकारिता हर हाथ की ताकत है। आज अगर कथनी और करनी में बारीक अंतर भी हुआ तो यह अंतर राजनीति से बाहर का द्वार खोलती है। यहां सिर्फ मतदान पत्र की सील से मशीन के बटन तक का परिवर्तन नहीं हुआ है, बल्कि पारदर्शिता के युग ने स्पष्टीकरण की मांग को भी समाप्त किया है। पर्दे पर चलने वाला राजनीतिक सिनेमा आज हर चौराहे पर नुक्कड़ नाटक कर रहा है। अब इतिहास की विवेचना पर वर्तमान के अध्ययन के साथ भविष्य को संवारा जा रहा है, चुनावी दृष्टिकोण ना सिर्फ बदला है, बल्कि परिवर्तन के सैलाब में नई सोच – नए नजरिए ने भविष्य के दरवाजे पर जोर से दस्तक दी है ।
(लेखक भारतीय जनता युवा मोर्चा के प्रदेश सह मीडिया प्रभारी हैं )
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